कविता।
कविता
नीले, पीले,हरे,गुलाबी भगवा या फिर केसरिया ,
न जाने कब किस रंग में आयेंगे मेरे महबूब रहनुमा ,
देख कर सियासत के रंग-ढंग हंसी-ठिठोली आती हैं।
बेइतिंहा खूबसूरत हैं पर लबों से निकल कर यूं बोली आती है,
जैसे सीनों को चीरती हूई सनसनाती कोई गोली आती है ।
गिरगिट की तरह रंग बदलते लोगों देख सोच में पड़ जाता हूं
अबकी किस-किस को कौन सा रंग लगाऊं जब होली आती है ।
बडा मासूम समझता रहा जिसे , उन्हीं चेहरों से धोखा खाता हूँ,
अब तो डर लगता है,सामने नज़र जब सूरत कोई भोली आती है।
ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं महल सब खड़ा करता तो है मज़दूर,
उस हुनरमंद कारीगर की किस्मत में बस खोली आती है ।
दिन-रात दिहाड़ी करके भी भूखी सोती है वो औरत,
दिन-रात की दिहाडी में तो केवल दामन चोली आती हैं।
लेखक: मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ ।