कविता।
सुनो द्राैपदी !
अब तुम स्वयं ब्रह्मास्त्र बनो ,
तुम स्वयं अर्जुन का गांडीव बनो
अब माधव ना आएंगे
अंहकार में डूबी सत्ता धृतराष्ट्र हूई
उम्मीद न्याय की छोड़ो तुम !
पांडव भी ना तेरे सगे बचे!
उनकी भी अपनी सीमा है
किससे रक्षा मांग रही हो!
कब तक आस लगाओगी
तू ही दुर्गा तू ही चंडी विक्राल भयानक काली हो
तू द्वापर की द्रोपती नही जो जाल बचाने आएंगे
क्या वे भूल गए नारी शक्ति के अपमान की आग
फिर कैसे करने लगे निर्वस्त्र नारी पे अट्टाहास
क्या भूल गए नारी के परिहास और उपहास का अंजाम
मैं काल भी मैं विक्राल भी
क्यो देख न पाते मेरा रूप
जिस्म और रूह के भूखे प्यासे तुम
कैसे अपनी ही जननी का जिस्म नोच कर खाते तुम
बार -बार क्यो मानव जाती को करते शर्मसार तुम
राजा का दोष ही क्या !कल भी अंधा और बलहीनता था जो
दोष तो मेरे निर्बल भुजाओं में जो काट ना सके दुःशासन के हाथों को
कब तक करे रक्षा कोई !तब मोहन ने लाज बचाई थी
अब केसव से शिकायत नही खुद ही अपना चीर बचाऊंगी
मैं ही दुर्गा मैं ही चंडी अब मैं ही शस्त्र उठाउंगी।।
लेखक: गौरव सिंह राठौर