12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस: साहस और आत्मविश्वास से परिपूर्ण भारत बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई थी स्वामी विवेकानंद ने।

आज़मगढ़।

रिपोर्ट: वीर सिंह

लेख- स्वामी विवेकानंद का जन्म उस समय हुआ था जब भारतीय बसुंधरा के आसमान पर हताशा,निराशा और कुंठा के घनघोर बादल छाये हुए धे । प्लासी के युद्ध से अंग्रेजो का विजय अभियान आरम्भ हुआ और आगामी सौ वर्षों में अंग्रेजों ने अपनी अत्यधिक शिक्षित-प्रशिक्षित तधा अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित सेना और सफल कूटनीति के बल पर समस्त भारतीय शक्तियों को एक-एक कर परास्त कर दिया। अंग्रेजों से परास्त पराधीन भारतीय जनमानस में घोर निराशा और हताशा व्याप्त थी। यह ऐतिहासिक ससच्चाई हैं कि-1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में भारतीय रणबांकुरो ने अद्वितीय वीरता और साहस के साथ संघर्ष किया परन्तु इसके साथ ही साथ यह भी ऐतिहासिक सच्चाई है कि इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को कुचलने के लिए अंग्रेजों अपने ने सम्पूर्ण भारतीय शासन के इतिहास का सर्वाधिक क्रूरतम और कठोरतम दमन चक्र चलाया । इस दमनचक्र के फलस्वरूप भारतीय जनमानस के मन मस्तिष्क में  गहरे रूप से समाहित इस हताशा और निराशा को दूर करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने अद्धभुत कुशाग्रता का परिचय दिया ।
भारत भ्रमण के दौरान  स्वामी विवेकानंद ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से भारतीय जनमानस में आत्मविश्वास, साहस, निर्भिकता, निडरता और भारतीय जन-जीवन में  भारतीयता के लिए गौरव भाव भरने का ऐतिहासिक और साहसिक कार्य किया। इसीलिए उन्हें भारतीय आध्यात्मिक संतो और संयासियो की परम्परा में हिन्दू नैपोलियन कहकर संबोधित किया गया। भारतीय जनमानस में व्याप्त घनघोर निराशा को मिटाकर स्वामी विवेकानंद ने जो आशा विश्वास और साहस का संचार किया उसकी प्रशंसा रोमा रोलां ने भी किया था। रोमा रोलां ने लिखा है कि-" उनकी चिता-भस्म से भारत की अंतरात्मा उसी प्रकार उछल निकली जिस प्रकार पुराना अमर पक्षी ( फीनिक्स) अपनी चिताभस्म से उठ खड़ा हुआ था उस जादू के पक्षी की भाॅति वह ( भारत की अंतरात्मा) अपनी एकता और अपने उस महान संदेश में विश्वास लेकर उठी जिस पर उसकी जाति के स्वप्नदृष्टा ऋषि वैदिक युग से चिंतन और मनन करते आए थे "। स्वामी विवेकानंद वीरोचित भावना से परिपूर्ण ऋषि थे जिनके विचारों से अनेक भारतीय महापुरुष अनुप्राणित हुए थे। अमेरिका,जापान और श्रीलंका  में धार्मिक और आध्यात्मिक गर्जना करने वाले नवीन वेदान्त के प्रणयनकर्ता स्वामी रामतीर्थ विवेकानन्द के विचारों गहरे रूप से अनुप्राणित थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस स्वामी विवेकानंद को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे। इसके अतिरिक्त अरबिंद घोष ने विवेकानन्द के विचारों की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी और लाल बाल पाल की गरम दलीय तिकड़ी स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित थी। निर्विवाद रूप से बंगाली राष्ट्रवाद के जागरण में स्वामी विवेकानंद के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वह अपने ओजस्वी विचारों से हर उस अर्जुन को जगाना चाहते थे जो भोग-विलास और आंतरिक आलस्य का शिकार तथा स्वयं के पराक्रम और पुरुषार्थ से अनभिज्ञ होकर कर्मविमुख हो चुका था। उनके ओजस्वी विचारों के फलस्वरूप भारतीय जनमानस में फिर से आशा विश्वास और साहस का संचार होने लगा और पराधीनता से परिपूर्ण मुक्ति के लोग संघर्ष करने के साहस के साथ खड़े होने लगे। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में होने वाले बंग-भंग आन्दोलन से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति तक के समस्त आन्दोलनों में विवेकानंद के विचारों के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं। 
   भारतीय जनमानस में आत्मविश्वास जगाने के साथ ही साथ आधुनिक काल में विवेकानंद ने भारत की महान सनातन संस्कृति और आध्यात्मिक चिंतन परम्परा को वैश्विक पटल पर प्रखरता से रखने का अनूठा प्रयास किया।  1893 मे शिकागो  में सम्पन्न विश्व धर्म संसद से लेकर विश्व के अनेक मंचों पर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिक परम्परा और धर्म के उद्दात्त पक्ष को मजबूती से रखने का कार्य किया। स्वामी विवेकानंद हिन्दुत्व के मौलिक सृजनात्मक और मानवतावादी सिद्धांतों के सजग सचेत और गम्भीर  वैश्विक व्याख्याता थे। अमेरिका सहित पाश्चात्य जगत आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण, शहरीकरण और अपने अकल्पनीय वैज्ञानिक चमत्कारों की चकाचौंध में न्यूनतम नैतिक मूल्यों और बंधुता की भावना को खोता जा रहा था। इसीलिए शिकागो की धर्म संसद में विवेकानंद ने जब प्यारे अमेरिकन भाइयों और बहनों कह कर संबोधित किया तो सभागार तालियों की गडगडाहट से गूँजने लगा। इस सभागार में स्वामी विवेकानंद द्वारा उद्बोधित यह प्रथम पंक्ति स्वाभाविक रूप से भारतीय संस्कृति के बसुधैव कुटुंबकम की महान सांस्कृतिक परम्परा की अभिव्यक्ति थी। विवेकानंद का स्पष्ट अभिमत था कि- वैज्ञानिक और तकनीकी के अनगिनत चमत्कारों से भौतिक सुख सुविधाओं का अंबार लगाया जा सकता हैं परन्तु चरित्र का निर्माण नहीं किया जा सकता है। चरित्र निर्माण के आवश्यक आध्यात्मिक संचेतना भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। इसीलिए विवेकानंद ने साफ-साफ कहा था कि-  भारतीय संस्कृति एक दिन इंग्लैंड सहित पाश्चात्य जगत की संस्कृति पर विजय प्राप्त कर लेंगी। इसके साथ विवेकानंद संस्कृति के क्षेत्र में हठधर्मी नहीं थे। उनका विचार था कि- भारत जैसे बहुलतावादी समाज में कोई भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण विविध संस्कृतिओ के सहमिलन से ही सम्भव है। एक स्थान पर उन्होंने कहा था कि-भारत में जब भी कोई पुनर्जागरण होगा तो इस देश की दो बडी संस्कृतियों के सहमिलन और सहकार के फलस्वरूप होगा ।हिन्दू उसकी आत्मा होगा तो इस्लाम उसका शरीर होगा, वेद उसकी आत्मा आत्मा होंगे तो कुरान उसका शरीर होगा। स्वामी विवेकानंद के धार्मिक सहिष्णुता के इस विचार को हृदयंगम कर लिया जाए तो भारत में समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक तनावो को रोका जा सकता हैं। 
  स्वामी जी युवाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली और  सशक्त होने की अपील करते थे। युवाओं में उच्च चारित्रिक गुणों का विकास देश भक्ति की भावना भर कर सशक्त और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण किया जा सकता है। अगर स्वामी विवेकानंद के सपनों का भारत आत्मनिर्भर और शक्तिशाली भारत का निर्माण करना है तो आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में युवाओं के चरित्र निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना होगा। स्वयं स्वामी जी शारीरिक रूप से हुष्ट-पुष्ट थे। वह एक अच्छे धावक की तरह दौड लगा सकते थे परन्तु इसके साथ ही साथ वह आंतरिक शक्ति पर बल पर बल देते थे। उनके अनुसार शारीरिक रूप से शक्तिशाली और स्वस्थ्य रहने के लिए जितना कसरत जरूरी है उतना मानसिक रूप से शक्तिशाली होने के लिए आध्यात्मिक चिंतन-मनन योग तप साधना भी आवश्यक है। रामकृष्ण परमहंस के माध्यम से स्वामी विवेकानंद ने दो बार  अक्षर ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया था फिर भी वह जीवनपर्यन्त शक्ति की आराधना करते रहे । कश्मीर यात्रा के दौरान उन्होंने अपने मुस्लिम नाविक की चार वर्ष की पुत्री की शक्ति की देवी के रूप में आराधना किया था। ऐसा वह महज अपने भक्तों को प्रसन्न करने के लिए नहीं करते थे बल्कि वह समझते थे कि- निरंतर योग तप साधना से निर्लिप्त बुद्धि की प्राप्ति होती हैं तथा अंतः करण पवित्र रहता हैं तथा इसके साथ शारीरिक सक्षमता और मानसिक ओजस्वीता निखरती रहती हैं। शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली युवा ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है। इसीलिए उन्होंने भारत के युवाओं से अपील किया कि- उठो ! जागो! और तबतक न रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। 

लेखक: मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता 
बापू स्मारक इंटर कॉलेज दरगाह मऊ।

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