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लेख: भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यहां की संसद को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर का दर्जा प्राप्त है अमूमन देखा जाए तो लोकतांत्रिक देशों में भारत की प्रधानता इसलिए भी विशेष है कि यहां लोकतंत्र हजारों शताब्दियों से विद्यमान रहा है, चाहे वह मौर्य साम्राज्य रहा हो, गुप्त साम्राज्य रहा हो, हर्षवर्धन का साम्राज्य रहा हो या चौहानों का।
लोकतंत्र की मर्यादा हर युग में सर्वश्रेष्ठ रही है इसका सबसे बड़ा उदाहरण रामचरितमानस में राजा राम के वन गमन के पश्चात भरत जी ने भरी राज्यसभा में प्रश्न किया था कि अगर जनता ने श्री रामचंद्र जी को अपना राजा स्वीकार किया है तो महलों का षड्यंत्र कैसे प्रजा से उनका अधिकार छीन सकता है। इन्हीं लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने में भाषा शैली अपनी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गरिमा में भाषा का प्रयोग उचित मार्गदर्शन और सम्मान का दर्जा दिलाता है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर में आजादी के नायक, महानायक और महानतम नेताओं ने बैठकर वाद विवाद को संसद की पटल पर रखा है। उनकी भाषा शैली आज भी हमें बहुत गौरवान्वित महसूस कराती है। हमें यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हम जो भी परिसंवाद करते हैं वह रिकॉर्ड किया जाता है और इतिहास में वह संवाद सदैव अपना नाम दर्ज करा लेता है। भारतीय संसद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवित रखने के लिए संवाद की चर्चा और भाषा शैली पर एक बार कहा था कि "भाषा सदैव यह सुनिश्चित करें कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए वैचारिक मतभेद का आदान-प्रदान करें ना की व्यक्तिगत टीका टिप्पणी" कितनी मर्यादित बात है यह। इसी संसद में संविधान के संस्थापक बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और संसद में लगभग चार दशकों तक सनातन विपक्ष की भूमिका निभाने वाले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने संसद में बोली जाने या प्रयोग की जाने वाली भाषा को सदैव लिपिबद्ध और मर्यादित रखा। संसद में वाद और संवाद होना एक मजबूत लोकतंत्र का सबसे बड़ा आधार है, साथ ही साथ हमें यह भी सुनिश्चित करना पड़ेगा की हम लोकतांत्रिक विषयों को जनता के सामने किस रूप या भाषा शैली में रख रहे हैं। वैचारिक मतभेद या कहें तो पार्टीयों की अपनी विचारधारा अलग हो सकती है और होना भी चाहिए क्योंकि तमाम विचारों को एक साथ लेकर चलना ही एक मजबूत और संगठित लोकतंत्र की निशानी है, लेकिन उसकी परिभाषा सदैव मर्यादित होनी चाहिए। संविधान की आर्टिकल 120 में संसद में प्रयोग की जाने वाली भाषा के बारे में जानकारी देती है कितना विराट स्वरूप है इस अनुच्छेद का जिसमें यह निर्दिष्ट किया गया है कि एक सांसद अपनी मनचाही भाषा में जिसमें वह अपने विचारों को अच्छे से व्यक्त कर सकता हो वह बोले या कहे फिर भी हम न जाने क्यों संसद में निम्न और ओछी भाषाओं का प्रयोग कर रहे हैं, सांसदों को यह बात सदैव ध्यान रखनी चाहिए कि वह लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में एक जन नेता के रूप में पहुंचे हैं उनको अपनी भाषा शैली, ज्ञान विज्ञान और विचारों को सोच समझकर संसद की पटल पर रखना चाहिए। एक वाकया याद है अटल बिहारी वाजपेई जी विपक्ष की तरफ से खड़े होकर पक्ष को जवाब दे रहे थे और दूसरी तरफ दो नौजवान सांसद शरद यादव और रामविलास पासवान श्री अटल जी को ओछी भाषाओं का प्रयोग कर बैठने के लिए कह रहे थे। संयोग से पक्ष की तरफ बैठे भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह जी ने भरी संसद में खड़े होकर के दोनों नौजवान सांसदों को डांट कर बिठाया और बोला आदरणीय अटल जी, जवाहरलाल नेहरू जी के जमाने से सांसद हैं उनका विचार इस संसद के लिए अति महत्वपूर्ण है और आप लोग अभी बहुत छोटे हैं उन्हें समझ पाने के लिए। दोनों सांसदों ने अपनी अभद्र भाषा शैली के लिए बाद में संसद से बाहर निकलकर अटल बिहारी वाजपेई से माफी मांगी अटल जी विराट स्वरूप के नेता थे। उन्होंने जवाब देते हुए कहा आप अगर क्षमा नहीं भी मांगते तो भी मैं क्षमा कर देता क्योंकि मैंने एक बार संसद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को "हिटलर" बोल दिया था मुझे इसके बाद बहुत ही आत्मग्लानी हुई और मैं इस्तीफा देने जा रहा था कि यह बात पंडित जी को पता चली और उन्होंने हंसते हुए मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि कोई बात नहीं नई उम्र है इस उम्र में ऐसा होता है आप अपना इस्तीफा वापस रखिए और कल से संसद की कार्यवाही में शामिल होइये। कैसा विराट स्वरूप था और कैसी दूरगामी सोच थी हमारे नेताओं की आज संसद में तू, तड़ाक, चाय वाला, पप्पू, बत्ती गुल, लमेरा, लोफर और न जाने कितनी व्यक्तिगत टिका टिप्पणियां, हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं यही कि हमने अपने संसदीय कार्य प्रणाली के मूल्यों को खत्म कर दिया है। किसी भी राष्ट्र की उन्नति और विकास के लिए उचित लिपिबद्ध भाषा शैली का होना अति आवश्यक है। अब तो डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया और न जाने कितने तमाम तरह के नेटवर्क हैं जिन पर यह वाद संवाद प्रसारित हो रहा है। हम अपने देशवासियों के लिए संसद में बैठकर क्या परोस रहे हैं? यह एक गंभीर विषय है इस पर विचार विमर्श करना हर एक सांसद की प्रमुख जिम्मेदारी है पक्ष हो या विपक्ष विचारों का आदान-प्रदान ही लोकतांत्रिक मूल्यों का आधार है। इस विषय की नैतिक जिम्मेदारी हर एक नेता की है जो क्षेत्र में सीधे जनता से जुड़ रहा है। "श्री अंबेडकर जी ने प्रथम संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि एक राष्ट्र का निर्माण उस राष्ट्र के लोगों द्वारा किया जाता है जिसमें उस राष्ट्र का विचार और उसकी भाषा शैली प्रमुख भूमिका निभाती है" क्या हम अब इन लोकतांत्रिक मूल्यों को भूल रहे हैं? अगर "हां" तो फिर हम अपने लोकतांत्रिक ढांचे को गिरा रहे हैं! अभी भी वक्त है इसको सतत अभ्यास से सही किया जाए अन्यथा इसका दूरगामी परिणाम बहुत ही भयावह है, वह दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में गाली गलौज और मार पीट शुरू हो जाए। वैचारिक मतभेद को व्यक्तिगत मतभेद न बनाकर संसद की कार्यवाही को सफल बनाने के लिए सुनिश्चित प्रयास हो।
लेखक: आलोक प्रताप सिंह
विचारक एवं विश्लेषक।