आज़मगढ़।
रिपोर्ट: वीर सिंह
सगड़ी (आजमगढ़)। सियासत भले कुछ देर के लिए रुकी हो, लेकिन रिश्ते और भरोसे की राजनीति आज भी ज़िंदा है — इसका जीता-जागता उदाहरण बनीं सगड़ी की पूर्व विधायक वंदना सिंह,
दो दिन के अंतराल के बाद जब पूर्व विधायक वंदना सिंह ने शनिवार को अपने आवास पर जनता दरबार लगाया, तो ऐसा लगा मानो सगड़ी की हर गली, हर मोहल्ले की आवाज़ आज एक छत के नीचे इकट्ठा हो गई हो। सुबह से ही लोगों की भीड़ लगनी शुरू हो गई थी — महिलाएं, बुज़ुर्ग, नौजवान, किसान, मज़दूर — हर वर्ग के लोग अपनी-अपनी समस्याएं लेकर पहुंचे। उन्होंन जनता दरबार लगाकर न सिर्फ लोगों की समस्याएं सुनीं, बल्कि आंखों में झांककर यह भरोसा भी दिया – “मैं आज भी आपके बीच हूं, आपके लिए हूं।”
सुबह होते ही सगड़ी क्षेत्र के कोने-कोने से सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण, महिलाएं, बुजुर्ग और नौजवान वंदना सिंह के आवास पर पहुंचे। किसी के पास ज़मीन विवाद की पीड़ा थी, कोई राशन कार्ड या पेंशन की उम्मीद लेकर आया था।
लेकिन यह कोई औपचारिक राजनीतिक आयोजन नहीं था। यह एक संवेदना का संगम था — जहां न कोई कुर्सियों की दीवार थी, न कोई प्रशासनिक दूरी। वंदना सिंह हर व्यक्ति की आंखों में आंखें डालकर सुन रही थीं — बिना किसी दिखावे, बिना किसी घबराहट के।
इस दरबार में शिकायते आईं, मगर निराशा नहीं फैली। हर शिकायत के बदले आश्वासन ही नहीं, कार्रवाई की तत्परता भी दिखी। जहां जरूरत थी, वहीं वंदना सिंह ने अधिकारियों से बात की, कुछ मामलों में अगले दिन खुद मौके पर पहुंचने की बात भी कही।
वंदना सिंह ने दरबार के समापन पर कहा –
"नेता बनने से पहले मैं एक बेटी हूं, एक बहन हूं, और आप सबकी उम्मीद हूं। मेरा मकसद सिर्फ़ अगला चुनाव नहीं, अगला समाधान है।"
वंदना सिंह ने हर समस्या को गंभीरता से सुना, संबंधित अधिकारियों से फोन पर बात कर तत्काल कुछ मामलों में कार्रवाई भी कराई। उन्होंने कहा –
"नेता का असली काम चुनाव जीतना नहीं, जनता के बीच रहना है। मैं आपके सुख-दुख की साझीदार थी, हूं और रहूंगी।"
सगड़ी की जनता दरबार में आज सिर्फ समस्याएं नहीं सुनी गईं, बल्कि एक बार फिर रिश्तों की मरम्मत हुई, भरोसे की नींव गहरी हुई। जब जनता दरबार खत्म हुआ, तो लोगों की आंखों में संतोष था, चेहरे पर मुस्कान थी, और दिलों में यह भाव –
"जो हमारे बीच खड़ी थी, आज भी वही हमारे साथ खड़ी है –
यह महज़ एक जनसुनवाई नहीं थी, बल्कि एक जन आस्था का उत्सव था – जिसमें दर्द सुना गया, उम्मीदों को पंख दिए गए और ये यकीन दिया गया कि लोकतंत्र में अब भी कुछ चेहरे ऐसे हैं, जो जनता के लिए धड़कते हैं।