मिर्ज़ा मसऊद बेग द्वारा लिखा गया लेख: नारी मर्यादा

समाचार इंडिया लाइव।

नारी मर्यादा।

नारी मानव समाज की आधार शिला होती है,जिसके ऊपर मानव समाज की अठ्ठालिकाओं का निर्माण होता रहता हैं,नारी ने हमें जनम दिया और जीने कि राह बताई, लेकिन आज का मानव  और कल  का मानव  तो वृक्षों  बल्लरियो पर की भांति झुला करता, जंगली फल-फूलो का सेवन करता था, मांस के कच्चे लोथड़े को खा जाता था फिर भी उस जंगली जीवन मे एक सभ्यता झलकती, लेकिन आज का मानव तो उस जंगली जीवन से बहुत आगे निकल गया। दौलत के पुजारी शरीर के दरिंदे अपनी हवस की पूर्ति के लिए क्या मां क्या बहने  क्या अपना क्या पराया  सब भूल बैठे हैं, वैश्या वृत्त किसी भी राष्ट्र के लिए नासूर होता हैं, कलंक होता है, भारत जैसे धर्मावलंबी  राष्ट्र में यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही खुले बाजार में उनके शरीर का सौदा होने लगता है।सम्मानित परिवार की कुंवारी न चाहती हुई भी अपराध जगत उन्हें यहां तक विवश कर देता है कि अंत में उन्हें वेश्याओं के घूंघट ललाट पर डाल ही लेने पड़ते हैं। घास कुस से बनी झोपड़ियों में गरीबी रेखा के नीचे दबी फिर भी सम्मान के साथ सांस लेने वाली स्त्रियां जिनके झोपड़ियों के दरवाजे से छन छन के सूरज की किरणें आती है और  उनके ललाट से अठखेलियां करती हैं। रात्रि आगमन पर चांद अपनी चांदनी के साथ उनका अभिवादन करती लेकिन वर्तमानयुग में अपनी छली शरीर के ग्राहकों  की प्रतीक्षा में वेश्याओं के चौखटों पर देखी जाती है,उस समय अपार कष्ट की अनुभूति होती है हृदय में एक टिस सी पैदा होती है।
क्या दिन क्या रात चारों तरफ अंधकार छाया रहता है दया की भीख मांगने से पहले गुंडों बदमाशों दुराचारियोंके नीचे उनकी आवाज सदैव के लिए दबा दी जाती हैं ऐसे तो समाज के कुछ लोग हैं।समाज के यही लोग इस लड़कियों को विवश कर उनको अपना हवस का शिकार बना लेते हैं, वासना के  तंतु झनझना  बैठते हैं, वासना की आंधी में नख से सिख तक जल उठते हैं, यौवन से भरपूर कराहती सिसकती आवाजे होटलों के बंद कमरे में कैद कर ली जाती हैं, उनके सीने  पर एक अशुभ समय में यौवन की बहार लूटने  के लिए  वासना कि ज्वाला शांत करने के  लिए एक भूखे भेड़िए की तरह कई लोग एक बिस्तर की तरह डालते हैं।

क्या होगा उस नारी का जिसके मुंह पर समाज के दरिन्दे कालीमां का आंचल दिखेते रहते हैं, अपराध की काली गलियों में उन्हें विवश होकर घूमना पड़ता है, सुहागन बनने से पहले उनके  अस्तित्व को  खुले बाजार में बेच दिया जाता है जवानी की खनकती चूडियों की मधुर ध्वनि काली रात के अशुभ साए में गुम हो जाती है, भरपूर जवानी को घिनावना वक्त अपने अन्दर आत्मसात करता चला जाता है।

अशुभ रातें , आभागी रातें अपनी बाहों में जकड़ती चली जाती हैं, मात्र एक हिचकती शरीर रही जाती  है और अंत में उस नारी का जीवन हाथ का मात्र एक  खिलौना बन कर रह जाता है। वही समाज के कुत्ते जिसने उसके शरीर को छला है कल कनी शब्द से संबोधित करने लगता है समाज की यह  कैसी विडंबना है, धिक्कार है ऐसे समाज के चन्द दरिंदो को जो काम वासना में अंधे होकर समाज की गरिमा को चिन्न भिन्न कर देते है। यही समाज के सफेद पोस लोगों की लीलाएं हैं। समाज का हर इंसान जानता है कि नारी समाज की देवी होती हैं, समाज के साथ उसका  अमूल्य भूमिका  होती है उसका अपना एक दिल होता है, समाज में एक स्थान होता है समाज के सामने एक कोमललता की तरह सदैव झुकी रहती है सतीत्व उसका सबसे अमूल्य सबसे बड़ी धरोहर होती है जिससे वह अपना सर ऊंचा करके समाज के सामने ग्रहस्थ जीवन में प्रवेश करती है शरीर की रेखाओं के उभार के साथ भरपूर जवान हो जाती है यौवन के लक्षण  प्रतीत होने लगते हैं यौवन की भावनाएं गति पाने लगती हैं, अरमानो के तरह-तरह के दिप प्रिय आगमन के स्वागतार्थ जल उठते है ताकि सोहाग रात ( प्रथम रात ) प्रिय को आने मे कष्ट कि अनुभूति न हो।

प्रत्येक लड़की प्रिय मिलन की अभिलाषा रखती है, अरमानों की घुघट लिए प्यार का सौगात देने के लिए  व्याकुल हो जाती है और अरमानों का शीश महल बना डालती है।चन्द यौवन के साथ नियति कुछ और खेल खेल जाती है, समय को कुछ और मंजूर होता है। अरमानों की नगरी में आग लगा दी जाती है। गम की चिंताओं में उन्हें बैठा दिया जाता है सिंदूर अंगार हो जाता है अभिलाषाओं का खून कर दिया जाता है। चन्द लमहे में सतीत्व को भंग कर उनके शीश महल गिरा दिए जाते हैं यही समाज के कुछ कामुक व्यापारी हैं जो मानवता के नाम पर कलंक है। बनावटी पर्दे की आड़ मे घिनावने कार्य को अंजाम देते रहते हैं।

समाज के ठेकेदारों के इशारे पर बेचारी कॉल गर्ल का लेबल लगाकर यहां वहां अपने शरीर का भाड़ा वसूलती रहती है यही आधुनिक युग के नारी के दशा और यही समाज के चन्द लोगों के पेशे हैं और क्या यही पेशे सदैव बने रहेंगे।उनका जीवन श्यमशान घाट बन  जाता है।एक कटी पतंग बन जाती है यह गुमनाम जिंदगी ना जाने कैसी-कैसी गलियों में भटकेगी।
वह अपनी इस नरकीय जीवन की सीमाएं भी तो  पहचानती हैं, वह जानती हैं कि समाज उन्हें सम्मान के  साथ जीने नहीं देगा समाज उन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेगा चाहकर भी इस मृगतृष्णा से छुटकारा नहीं।
उनके आंसुओं की अविरल धारा की उष्णता कौन  देखेगा, अंत में उनके आंसू नयनो की कोरों में दबकर रह जाती है, आंखों में हमेशा हमेशा के लिए सुख जाती हैं।
अन्ततोगत्वा उनका जीवन नदी  घाट बनकर रह जाता है इतना ही नहीं उनकी नजरों के आगे बुझती हुयी जिन्दगी का मात्र गहरा अन्धेर रह जाता है,
जिसमे वह सदैव के लिए लुप्त हो जाती हैं।

         लेखक- मिर्ज़ा मसऊद बेग
                    भुतपूर्व छात्र नेता
                    ( एम.ए. , बी.एड.) 
श्री गाँन्धी पी. जी. कॉलेज मालटारी आज़मगढ़।

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                         समाचार इंडिया लाइव
                                   ब्यूरो।
 

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