विलुप्त होते जा रहे हैं खेत-खलिहानों में गूंजने वाले मनमोहक गीत


लेख।

रोपनी ना होई हमसे,
रख बनिहार ऐ पिया 
रोपनी ना होई हमसे। 

  उपरोक्त गीत भारतीय गाँवों में सदियों से प्रचलित श्रमगीतों की एक बानगी है। आज भी भारत की बहुतायत आबादी का भरण-पोषण खेती-किसानी पर निर्भर है। परम्परागत रूप से भारतीय खेती-किसानी श्रम आधारित थी।खेती-किसानी में जुटे महिला पुरुष फसलों के बोने ,उगाने और काटते समय सुमधुर स्वर में गीत गाते झूमते रहते हैं। हमारे किसानो, मजदूरों और मेहनकशों के श्रमगीत आज भी सुनने में कर्णप्रिय लगते हैं। वैसे तो भारतीय ग्रामीण लोक जीवन में कजरी, चैता, फगुआ, चौऊताल, छपरहियाॅ, बारहमासा सहित हर मौसम , हर उत्सव और हर प्रहर के गीत पाए जाते हैं।
परन्तु सावन के महीने में हमारे गाँव समाज की महिलाएं धान की रोपनी करते समय सुमधुर स्वर में जो गीत गाती रहती हैं वो राह चलते हर राही को भावविभोर कर देती हैं। बाजारवाद के तेजी पाॅव पसारते तथा उपभोक्तावादी संस्कृति के निरंतर विस्तार के कारण आज खेती किसानी का आधुनिकीकरण और मशीनीकरण होता जा रहा है। खेती किसानी में  बढते आधुनिकीकरण ,मशीनीकरण और व्यवसायिकरण दृष्टिकोण के कारण हमारे खेत-खलिहानों में गूंजने वाले गीत सुनने के लिए अब हमारे कान तरस जाते हैं। हमारे खेत-खलिहानों,  बाग- बगीचों में भैस, गाय-गोरू चराते समय या खेत में हल चलाते समय या  कटिया दवरी ओसवनी करते समय गाँव-गिराॅव के स्त्री-पुरुष लोग-बाग भरपूर  मगन होकर जो गीत गाते थे वह देखते-देखते हमारे मानसिक परिवेश और वातावरण से ओझल हो गये।   
           हमारे भारतीय लोकजीवन में परिवार और समाज का स्वरूप बहुत व्यापक रहा है। गांव-जवार में गाय, भैस, कुत्ता सहित अन्य पालतू पशु-पक्षियों को भी परिवार का अनिवार्य हिस्सा माना जाता रहा हैं। हमारे ग्रामीण जन जीवन में गाॅव के पीपल, बरगद पाकड ,शहतूत को अपने समाज का अनिवार्य हिस्सा माना जाता रहा हैं। इसलिए हमारे लोक गीतो में पेड पौधों और पशु पक्षियों से गहरा रिश्ता झलकता है। हमारे गाँव देहात में प्रचलित मशहूर विदाई गीत पेड पौधों और पशु पक्षियों से जीवंत रिश्ते को बखूबी दर्शाता है। 
"नीमियाॅ के पेड जनि कटिह ए बाबा 
नीमियाॅ चिरयइन क बसेर ए बाबा "
  हमारी लोक परंपराओं, लोकमान्यताओ और लोक गीतों से स्पष्ट परिलक्षित होता है कि- हमारा    प्रकृति से गहरा ,घनिष्ठ और जीवंत  संबंध रहा है। हमारी लोकगीतों में सहकार समन्वय साहचर्य पर आधारित महान भारतीय संस्कृति और उन्नत लोक परंपराओं का दिग्दर्शन होता हैं । हमारे लोकगीतों की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि- हमारे लोकगीतों में लोक जीवन की सुखद दुखद अनुभूतियो  पारिवारिक और सामाजिक संबंधों की खटास-मिठास की भी  झलक मिलती हैं। ग्रामीण महिलाएं परम्परागत रूप से कृषि कार्य में दक्ष होती हैं। वे कृषि कार्य में पूर्णतया समर्पित तथा एकाग्रचित होने के लिए लोकगीतों को गुनगुनाती हैं। प्रायः महिलाएं जब धान रोपने तथा अन्य कृषि कार्य करने खेत-खलिहानों  में जाती हैं, तो अपनी व्यथा (पारिवारिक जीवन की कटुता, प्रेम आदि) व आकांक्षाएं (गहने, जेवरात, शहर व तीर्थ दर्शन आदि) ‘रोपनी’ व ‘सोहनी’ नामक गीत से अभिव्यक्त करती थी। लेकिन जैसे-जैसे समय का रथ आगे बढ़ता गया वैसे यह सारी चीजें भारतीय संस्कृति से विलुप्त होती जा रही हैं । आज जो छोटे कृषकों का परिवार हंसता खिलखिलाता था वह आर्थिक जिम्मेदारियों के बोझ तले पिसता जा रहा हैं। इस बाजारवादी दौर में जीवन जीने की चुनौतियाॅ निरंतर बढती जा रही है। बढती आर्थिक चुनौतियों से लडते-जूझते छोटी जोत के धीरे-धीरे अपने खेत-खलिहान बेचकर दिहाडी मजदूर बनते जा रहे हैं। प्रायः अन्नदाता की मनःस्थिति कृषिगत कार्यकलापों तथा पारिवारिक जीवन की दुश्वारियों के इर्द-गिर्द ही रमती रहती है। लोकगीतकार कृषक समाज की मनःस्थिति से भलीभांति परिचित होता है जिसकी झलक विरहा, रोपनी, व मल्हार आदि लोकगीतों में खूबी देखने को मिलती थी। एक बात और आपको स्पष्ट करते हुए चले कि- भारतीय संस्कृति में पुरातन सभ्यता से ही कई ऐसे रीति रिवाज रहे हैं जैसे घर का निर्माण व शादी- विवाह ,खेती-बाड़ी ऐसी अनेक छोटे-बड़े कामों की शुरुआत लोकगीतों के साथ ही की जाती रहीं। धान की रोपाई के समय गाए जाने वाले लोकगीत, लोकगाथाओं और देवी-देवताओं की ऐतिहासिक कथाओं को पिरोए हुए होते हैं। हमारे लोकगीत हमारी संस्कृति और परम्परा के संवाहक के साथ साथ हमारे गौरवशाली इतिहास के संवाहक भी है। 
लेखक:: गौरव सिंह राठौर

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