आजमगढ़ के विकास के वास्तविक शिल्पकार थे स्वाधीनता-संग्राम सेनानी बाबू इन्द्रासन सिंह


लेख।

11 जून पुण्य तिथि पर शत-शत नमन 

        उस दिन सिहरन थोड़ी बढ़ गई थी ठंड अपने घटा पर विद्यमान, हवा में नमी के साथ-साथ कंपन और उसकी कहर वरपाती तिरछी बयार मानव शरीर को छेद करती हुई बाहर निकल रही थी/ 
फाल्गुन का महीना था, सरसों के पीले फूल  खेतों को रंगीन  मिजाजी  बना रहे थे/  गेहूं में  बाल लगनी शुरू हो चुकी थी, कहने को तो पतझड़ का महीना था पर आमो पे  बोर वैसे भी बेहद प्रभावशाली लग रहे थे,मानो किसी घर को  दीयों से  सजा दिया गया हो/
गुलमोहर के लाल फूल टीम टीम आ रहे थे सूर्य भी निकल आया था झोपड़ी के झरोखों से जमीन पर रेंगता हुआ अपने होने का एहसास करा रहा था सहसा झोपड़ी से हाथ में मिट्टी का मटका लिए हुए हैं सबसे छोटी देवरानी बाहर निकलती हैं/
 कहते हुए "जल्दी से बनावत है खाना खाला लोग नात आज साज का कोनो दुरा नईखे" अपने होने का एहसास कराते हुए कि शायद आज घर में एक नया मेहमान आने वाला है/
 बाबूजी माढीले (जो आज बर्मा की राजधानी रंगून कहलाता है) मै खानदान के भरण-पोषण के लिए कमाने गए हुए थे, किसको पता था कि अपने प्रिय लाडले को पैदा होते हुए ना देख पाए, और ऐसा होना भी था क्योंकि "ब्रितानिया हुकूमत" थी, आने-जाने के संसाधन कम, पानी के जहाज से भ्रमण होता था और तब आज की तरह कंपनियों में "पैटरनिटी लीव" नहीं मिला करती थी/ 
अंदाजा लगा सकते हैं कि कितना कठिन जीवन रहा होगा और लोगों ने कितने धैर्य से उसको स्वीकार किया और जिया होगा/ एक बार बाहर विदेश चले जाने पर क्या पता था कि वापस भी आना होगा और अपने पत्नी और बच्चों से मिलना हो पाएगा/
दोपहर 1:00 बजे का समय था गांव की औरतों का जमावड़ा छोटी देवरानी के घर विराजमान था/ चारों तरफ कौतूहल और अफरा तफरी का माहौल इस उम्मीद से कि आज एक नया सवेरा उनके जीवन में आने वाला है और यह सरगर्मी और बढ़ जाती क्योंकि छोटी देवरानी का पहला बच्चा था/ 
16 मार्च सन 1913 का दिन देवारा खास राजा के लिए खूबसूरत और इतिहासमई होने वाला था क्योंकि इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो इतिहास की पटल पर अपने कर्म और प्राण से लिखते हैं/
कौन जानता था कि आगे चलकर यह दिन इस छोटे से गांव से उभर कर राष्ट्र स्तरीय मंच पर लहरा जाएगा, कौन जानता था यह बच्चा ब्रितानिया हुकूमत के आबोहवा के खिलाफ बहता हुआ उस शिखर तक पहुंचेगा, जहां से केवल यश, कीर्ति और सम्मान वापस आ सकता है/
कौन जानता था यह शेर की भांति लड़ता, गरजता, गरीबी को जीता हुआ राष्ट्रप्रेम हृदय में लपेटे परिवार, मां बाप त्याग इस दृढ़ इच्छा से करेगा कि कल मेरा भारत स्वतंत्र होगा और हम आजादी के चयन में जिएंगे/ 
लेकिन हां ऐसा हुआ झोपड़ी से नवजात बच्चे की आवाज रोते हुए निकली, सब प्रसन्न हुए, परिवार प्रसन्न हुआ, खानदान प्रसन्न हुआ लोग तालियां बजा रहे थे, लेकिन एक मां थी जो अज्ञात भय में पति के ना होने का एहसास और एक तरफ गोद में भविष्य को लपेटे हुए रो रही थी/
 मानो उसने धरती मां से कर्ज लिया और बच्चे के सिर पर हाथ फेरती हुई कसम दे रही हो की तुम्हें दो माताओं के कर्ज उतारने हैं एक जिसने तुम्हें जन्म दिया और दूसरा जिससे तुम सम्मान और यश प्राप्त करोगे/ 
हे भरत शिरोमणि तुमको आगे दंड स्वीकार करने होंगे, अपयश को मुंह से लगाना होगा, शरीर पर कोड़े खाने होंगे, फटे कुर्ते और कच्ची जगह में जीवन बिताना होगा/
तब जाकर कहीं तुम अपने जन्म के कर्ज से मुक्त हो पाओगे/
शायद यह मां जानती तो बच्चे को पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार देती लेकिन भविष्य कौन जानता है यह तो विधि का विधान है जिसकी भूमिका लिखी जा चुकी है वह होना संभव है/
यथार्थ ही किसी ने कहा है की गरीबी और लाचारी इंसान को इतना मजबूर कर देती है कि वह ना चाह कर भी अपनी दृढ़ इच्छा से पूरी शक्ति लगाकर आगे बढ़ता है, बढ़ता ही जाता है, और एक समय ऐसा आता है जब यह सारी बातें उसे निरर्थक जान पड़ती हैं/
वह अनुभव को जीता हुआ शेर की तरह आगे बढ़ता है, किसी अज्ञात भय से मुक्त, अविचल सूर्य की तरह प्रकाश बिखेरता हुआ/ आज का देवराचल जो कभी जेठ मास की दुपहरी की तरह इंद्रासन की छत्रछाया में जगमगाया था/ वह आज कहीं डूबता नजर आ रहा है, कारण यह है आज की युवा पीढ़ी अपने इतिहास को जानने में तत्पर नहीं है, वह सूचना और संग्राम में इतनी व्यस्त है, कि अपने अतीत का संयोजन करना उनके हाथ से निकलता जा रहा है/ उम्र छोटी थी लेकिन हौसला बढ़ा, बचपना गरीबी में बीता एक फटी जहिया, तथा खादी की वडे, में बचपन बिताने वाला बालक धीरे-धीरे बड़ा होता है/ परिवार में पिता अपने भाइयों में सबसे छोटे होने के नाते बर्मा रंगून में कमाने चले जाते हैं/ माता का इकलौता सहारा वह बालक और उनकी एक बहन साथ साथ परिवार में पलते और बढ़ते आगे निकलते रहे/ वक्त आया जब उम्र 10 साल की हुई उसी समय आजादी के आंदोलन में भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगी/ इस फांसी ने बालक इंद्रासन के मन में क्रांति की ज्वाला भर दी/ कक्षा 5 जो उस जमाने में बोर्ड हुआ करता था, वह पास करके मिडिल की पढ़ाई करने के लिए 12 किलोमीटर रोज का सफर पैदल तय करना कितना मुश्किल और नामुमकिन सा रहा होगा, लेकिन शिक्षा के प्रति ललक तो तब भी थी/ मिडिल यानी कक्षा 8 पास करने के उपरांत सीधे कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हो जाना और भारत की आजादी की लड़ाई में सहभागी बन्ना जीवन का परम लक्ष्य बन गया/ उम्र महज 20, 21 की रही होगी संन था 1932 कांग्रेसियों और आजादी के सिपाहियों को ब्रिटिश हुकूमत पकड़, पकड़ कर जेल में डालने लगी/ किसी को मारने लगी किसी को नजर बंद करने लगी, उसी लड़ाई में इंद्रासन सिंह आंदोलन में पकड़े गए और जेल में डाल दिए गए, मां का इकलौता सहारा और अपने कुल का इकलौता दीपक ब्रिटिश हुकूमत की अंधेरी जेल में सुगाता  हुआ तड़प रहा था, लाठियां गिर रही थी, लेकिन कौन गिनने वाला था? शरीर में जज्बा तो केवल आजादी का था, और सवाल देश की आन बान और शान का तो जवानी कैसे हार मान जाती/ लेकिन भावना तो आखिर भावना ठहरी/ मां का रो रो कर बुरा हाल आंसू कैसे गिरते मानव रुकने का नाम ना हो 12 दिन तक ना लौट के आने पर मां ने समझ लिया कि अब पुत्र से संबंध केवल इतने ही दिन का था क्योंकि उस जमाने में कौन कहां कैसे मार दिया जाता था इसका अंदाजा नव भारतीयों को था और नाही ब्रिटिश हुकूमत के सिपाहियों को गोलियां और लाठियां चलती थी लाशों को गिनने वाला कोई नहीं होता/ 2 हफ्ते बाद छूटने के बाद लखनऊ से जब इंद्रासन सिंह घर लौटे तो मां ने रो-रो अपनी एक आंख खराब कर ली थी, और दूसरी आंख भी पुत्र की स्नेह तपस्या में लिफ्ट जिंदादिली का एहसास करा रही थी/ घर आने पर पता चला कि ब्रिटिश हुकूमत की फौज गांव में भी आई थी, पता लगाते लगाते और गांव वालों को धमकी देकर गई, अगर इंद्रासन जिंदा पकड़ा गया तो जान से मार दिया जाएगा या काले पानी की सजा पर भेज दिया जाएगा और अगर गांव वालों ने उसे छुपा कर रखा तो पूरे गांव को जलाकर राख कर दिया जाएगा, इन्हीं सबके बीच ब्रिटिश हुकूमत ने गांव वालों से पत्र पर हस्ताक्षर करवाए कि इंद्रासन सिंह का गांव, समाज तथा परिवार से कोई औपचारिक संबंध नहीं है/ कितना कठिन दौर रहा होगा, यह सोच कर शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, मानो हमारा ही पूर्वज हमसे कहता हो कि बच्चों तुमने अभी जूझने का जज्बा और साहसिक करतब को नहीं देखा है, शायद हां! यह सही भी है, क्योंकि परिस्थितियां ही इंसान को मजबूत और साहसी बनाती हैं/ ब्रिटिश सिपाहियों के जाने के उपरांत गांव में खलबली सी मच गई गांव वालों ने इंद्रासन की मां को भी समझाया कि अब अगर अपनी जिंदगी चाहती हो तो अपने पुत्र को भूल जाओ/ लेकिन मां तो भला मां ठहरी, उसके मन में था कि मेरा बेटा लौटेगा, जरूर लौटेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही इंद्रासन सिंह की घर वापसी के बाद लखनऊ आना, जाना और जेल में कैद होना तथा जमानत होना एक आम पेसा सा बन गया था/ जेल अब उनको ससुराल से लगने लगी थी/ महज 21 की उम्र में न जाने कितनी लाठियां शरीर पर जेली होंगी और उस 14 दिन के भूख ने 16 में दिन मिली मां के हाथ के खाने से सारे दर्द ब्रिटिश हुकूमत पर उधार चढ़ा दिए गए होंगे/ पहली शादी हुई एक बेटा हुआ लेकिन परिवार कौन संभाले? देश सर्वोपरि था! दिन-रात दिमाग में केवल एक स्वर गूंजता था की भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और अशफाक उल्ला का सपना कैसे पूरा किया जाए, फिर क्या था? कांग्रेस कोर कमेटी के सदस्य को फिर लखनऊ में पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया/ 4 साल जेल में रहने के बाद जब घर लौटे तो केवल मां जीवित थी/ बीवी और बच्चे हैजा और इनफ्लुएंजा से अपने प्राणों की आहुति दे चुके थे/ मां अकेली दिन रात विलाप करती अपने भाग्य को कोसती की विधाता ने उसे कैसा जीवन दे दिया, ना तो उसका पति ही साथ है और ना ही उसका बेटा 1 को परिवार के भरण-पोषण की चिंता थी, और दूसरे को आजाद कराने की/
वक्त कुछ यूं करवट बदलता है, मानो उसे कुछ पता ही नहीं! परंतु शायद वही है, जो जानता जरूर है, की उसने अपने इतिहास की गहराइयों में न जाने कितने राज दफन किए है/ 1945 में  जेल से छूटने के बाद दूसरी शादी हुई और भारत की आजादी की पटकथा लिखी जा चुकी थी 1947 में भारत आजाद हुआ चारों तरफ खुशियां ही खुशियां थी लेकिन इंद्रासन के मन में तो कुछ और ही चल रहा था/ देवाराचल जो साल में लगभग मध्य जून से लेकर मध्य सितंबर तक घाघरा में बाढ़ से त्रस्त और ग्रसित रहता है/ बाढ़ का आलम कुछ यूं होता है कि, लगभग 500 गांव घाघरा नदी के पानी से सराबोर होते हुए भी अपने अदम्य साहस और धैर्यता का परिचय देते हुए शासन प्रशासन और सरकार को बार-बार अपने विस्तार का अनुकरण कराते हैं, यह भी दर्शाते है कि हम हर साल टूटते हैं, अपनी क्षमता से तथा शक्ति से दोबारा खड़े होते हैं और दूसरी भव्य एवं अलौकिक दुनिया के साथ फिर से कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार रहते हैं/ आइए बात करते हैं उस इतिहास की जिसको देवराचल ने अपनी गोद में बड़े ही लाड प्यार से छुपा कर पाल पोस रहा है/ बात है आजादी के बाद सगड़ी विधानसभा के  दो परम समाजसेवी  व्यक्तियों की  पहला  बलदेव चौबे  और दूसरा  इंद्रासन सिंह/ दोनों ही  स्वाधीनता सेनानी, प्रकांड विद्वान,  साहसी, मेहनती  और  कांग्रेस पार्टी के वफादार, सिपाह सलाहकार/ बलदेव चौबे जो पंडित गोविंद बल्लभ पंत के बहुत करीबी तथा इंद्रासन सिंह जो कि लाल बहादुर शास्त्री तथा रफी अहमद किदवई के साथ जेल में 4 साल बिताएं हो, से प्रगाढ़ संबंध थे/ पहले आम चुनाव में सगड़ी विधानसभा की सीट को लेकर पार्टी ने दोनों लोगों को बुलावा भेजा/ लखनऊ में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की अध्यक्षता में मीटिंग हुई/ उस समय श्री इंद्रासन सिंह उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष हुआ करते थे, को वरीयता दी जानी थी/ परंतु उन्होंने बलदेव चौबे के लिए प्रस्ताव रखा/ देश में पहली बार 1952 में आम चुनाव हुआ, उस चुनाव में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार बनी तथा उत्तर प्रदेश जिसका की पुराना नाम यूनाइटेड प्रोविंस था, के प्रथम मुख्यमंत्री के रूप में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने पदभार संभाला/ हमारे सगड़ी विधानसभा से कांग्रेस के प्रत्याशी स्वर्गीय श्री बलदेव चौबे पहले विधायक चुने गए, गेरुआ वस्त्र धारी तथा सहज स्वभाव एवं सरल व्यक्तित्व होने के नाते उनका नाम स्वामी सत्यानंद पड़ गया था, लोग प्यार से उन्हें स्वामी जी, स्वामी जी, ही कहकर बुलाते थे/ आम चुनाव के बाद क्षेत्र का दौरा स्वामी जी साइकिल से या पैदल ही श्री इंद्रासन सिंह के साथ किया करते थे, बात 1953 की है जुलाई, अगस्त का महीना चल रहा था, घाघरा नदी का पानी उफान पर था, चारों तरफ जल ही जल मनो समुद्र ने विचार बना लिया था की पूरी धरती को जलमग्न कर देना है/ स्वामी जी बाढ़ का दौरा पैदल ही कर रहे थे/ अचानक मसूरिया पुर गांव के पास सहसा उनकी नजर एक विधवा स्त्री पर पड़ी जो बाढ़ के पानी को रोकने के लिए मिट्टी से मेड बना रही थी/ पानी बार-बार मेरे को तोड़ देता वह बार-बार बनाती और थक कर बैठ जाती, स्वामी जी से रहा नहीं गया, उन्होंने उसके हाथ से फावड़ा लिया और खुद मिट्टी का घेरा बांधने लगे, देखते ही देखते सैकड़ों की संख्या में लोग इकट्ठा हो गए फावड़ा तथा खांची लेकर, मेड बनाई गई, उस विधवा स्त्री का घर बाढ़ के पानी से बच तो गया लेकिन न जाने कितने मिट्टी के घर टूट कर गिर गए/ झोपड़ियां गिर गई, कितने मकानों में पानी चला गया, चारों तरफ त्राहिमाम त्राहिमाम मचा हुआ था/ उस समय  श्री इंद्रासन सिंह  बलिया  में  कांग्रेस जिला अध्यक्ष  की लड़ाई  को  निस्तारण रूप देने के लिए  हाईकमान के आदेश पर बलिया गए हुए थे/ विधानसभा का सत्र शुरू होना था, स्वामी जी लखनऊ पहुंचे उन्होंने श्री इंद्रासन सिंह को साथ लिया और साथ ही साथ महूला गढ़वाल बांध का प्रस्ताव और दूसरे हाथ में अपना इस्तीफा, दोनों लोग मुख्यमंत्री श्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत के पास गए और अपना प्रस्ताव रखा, कुछ देर रुकने के पश्चात प्रस्ताव पढ़ कर पंत जी ने कहा स्वामी जी आपने प्रस्ताव रखा तो ठीक पर यह साथ में इस्तीफा भी क्यों लेकर आए? तब स्वामी जी का जवाब था कि मैं एक जनता का सेवक हूं! अगर मैं उनकी सेवा नहीं कर सकता तो मैं इस पद पर रहने की योग्य नहीं हूं/ ऐसा था हमारे तब के नेताओं का विचार और समाज के प्रति निष्ठा/ मुख्यमंत्री जी ने तब जवाब दिया ठीक है, राज्य के कोस में इतना पैसा नहीं है की इस बांध का निर्माण कराया जा सके, हां यह आश्वासन आप दोनों लोगों को जरूर दूंगा कि मैं यह प्रस्ताव प्रधानमंत्री  श्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को जरूर भेजूंगा/ तत्कालीन प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव को स्वीकार किया और आश्वासन दिया कि हां केंद्र सरकार राज्य को बजट आवंटित करेगी इस बांध के निर्माण के लिए/ 1954 के शुरुआती वर्ष में स्वामी जी का अकस्मात हृदयाघात से निधन हो जाता है और महूला गढ़वाल बांध का प्रस्ताव फाइलों में दबा रहता है/ जब उसी साल 1954 के जुलाई-अगस्त में बाढ़ का प्रकोप बड़ा तो संयोग से श्री इंद्रासन सिंह लखनऊ में उपस्थित थे/ उन्होंने स्वामी जी के दबे हुए प्रस्ताव को मुख्यमंत्री के सामने फिर से पेश किया, केंद्र से आवंटित हुआ बजट राज्य को मिला/ साल 1954  के अंत तक आते-आते महुला गढ़वाल का टेंडर हुआ, ठेकेदार नियुक्त किए गए/ इंद्रासन सिंह ने प्रस्ताव की कॉपी लखनऊ से आजमगढ़ जिला हाईकमान को भेजी/ आजमगढ़ के हाईकमान ने ठेकेदार को इजाजत दी और सन 1955 में महुला गढ़वाल बांध की न्यू पड़ी/ साल 1963 मै बांध का उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री चंद्रभान गुप्ता जी तथा तत्कालीन विधायक श्री इंद्रासन सिंह के कर कमलों द्वारा किया गया और उसी साल बंदे पर आम जनता का आवागमन शुरू हुआ/ उस बांध से लगभग हजारों गांव सुरक्षित हुए/ 1979 मैं  गरीबी हटाओ  तथा  गांव गांव चलो  के दौरान इंदिरा  गांधी जी का आगमन  उसी  बंदे से होकर इंद्रासन के दरवाजे तक हुआ, साल 2007 - 08 में राहुल गांधी भी  घाघरा नदी की  कटान से प्रभावित  आम जनों को देखने के लिए उसी  बांध से  पधारे थे/ आज उस बांध को बने लगभग 70 साल हो गए परंतु उस बांधने न जाने कितने विस्थापन को रोका/ कितने लोगों के लिए प्रत्यक्ष दाई बना/ कितने लोगों का रोजगार उसी बंदे पर चलाएं मान है, अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिकता का एक सबसे बड़ा उदाहरण पूर्वांचल का महुला गढ़वाल बांध है/ अभी भी  बाढ़ आ जाने पर  बांध से  उत्तर बसने वाले लोग  पानी से गिर तो जाते हैं, लेकिन  उनका भी जीवन  अदम्य साहस एवं जुझारूपन से लिफ्ट है,  हर साल  लगभग  100  गांव के ग्राम वासियों  का ठिकाना  वह  बंधा  होता है,  बाढ़ के समय में/
जिसका श्रेय यहां के 2 सपूतों का है एक ने प्रक्रिया शुरू कि और एक ने खत्म किया/ आज जब जब देवराचल में बाढ़ का प्रकोप होता है, तब तब इन महापुरुषों का योगदान खुलकर सामने प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है/ इतिहास उन्हीं को अमर करता है, जो इतिहास में लड़ते हैं /
कहते हैं जीवन में किसी किसी को ही मौका मिलता है इतिहास बनाने का/

लेखक: आलोक प्रताप सिंह
(विकास अधिकारी)
आई सी डी पी 
अम्बेडकरनगर

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