जाति-बिरादरी मानव निर्मित है,प्राकृतिक होती तो, हर भेद-भाव से दूर होती।


कविता।

जाति-बिरादरी मानव निर्मित है,
प्राकृतिक होती तो, हर भेद-भाव से दूर होती।

जाति -बिरादरी मानव निर्मित है,
प्राकृतिक तो कतई और कदापि नहीं है,
प्राकृतिक होती तो, हर तरह के भेद-भाव से दूर होती।
प्राकृतिक तो भूरे ,काले, घेनेरे और घनघोर
हर रंग, हर रुप, हर रफ्तार वाले इन्द्रधनुषी बादल है,
जो हर आँगन, हर छत , हर खेत खलिहान में
बिना भेद-भाव विविध रूप में बरसतें है।
प्राकृतिक तो तो ब्रह्मांड का प्यारा तारा सूरज है
जो अपनी रोशनी कभी सुनहरी, कभी कड़क,
कभी लाल, कभी पीला, कभी श्वेत कभी सुरमई 
बिना कल-छपट  अनवरत सर्वत्र बिखेरता है।
प्राकृतिक तो रात में टिमटिमाते सारे सितारे,
और अपना आकार बदलता हर आँखो का चन्द्रमा है 
जो झोपड़ी, छप्पर, महल में लोरी गाती माताओं के
दुधमुंहे बच्चे के लिए
सोने की कटोरी में दूध-भाँत लेकर पहुँच जाता हैं।
यही नहीं बिना किसी रिश्ते -नाते
धरती के सारे बच्चों का मामा  बन जाता हैं।
बेइंतिहा मुहब्बत करने वाले दिलों में
कभी मासूक कभी मासूका बन जाता हैं।
प्राकृतिक तो अविरल, चंचल और निर्मल
गंगा , कृष्णा, कावेरी सरीखी अनगिनत सरिताएं है,
जो धरती के हर जड़ -चेतन खेत-खलिहान की
नि:श्छल भाव से प्यास बुझती रहती हैं ,
जाति, पंथ, कुल गोत्र, वंश की जाँच पड़ताल
किए बिना पाप धोती रहती हैं,
भेद-भाव से जो परे है वहीं प्राकृतिक है,
इसलिए जो भेद-भाव से भरा हुआ है
वह प्राकृतिक नहीं हो सकता है, कतई नहीं।
भेद-भाव से भरे हर मानव निर्मित को
एक न एक दिन भर-भरा कर ढहना होगा
गिरना होगा और ध्वंस्त होना ही होगा।

स्वरचित
मनोज कुमार सिंह
लेखक/ साहित्यकार /उप-सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका
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