लेख।
लेखक: अवनीश सिंह तोमर
वंशवाद—सिर्फ चार अक्षरों का यह शब्द, जितना छोटा है, उतना ही गहरा और समाज के लिए खतरनाक भी। यह एक ऐसा शब्द है, जो सुनने में शाही विरासत की झलक देता है, लेकिन इसकी जड़ें लोकतंत्र और सामाजिक समानता को धीरे-धीरे खोखला करती जाती हैं। वंशवाद का तात्पर्य है—किसी भी क्षेत्र में सत्ता, प्रतिष्ठा या प्रभाव का हस्तांतरण केवल रक्त संबंधों के आधार पर, न कि योग्यता के आधार पर।
भारतीय समाज में परंपरा के नाम पर यह सोच पनपी कि कुम्हार का बेटा कुम्हार बने, सुनार का बेटा सुनार। यह तब तक सहज और स्वीकार्य लगता है, जब तक वह केवल सीमित दायरे में रहता है। पर जब यही परंपरा राजनीति, प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया या उद्योग जैसे समाज-निर्माण के प्रमुख क्षेत्रों में प्रवेश करती है, तब यह परंपरा न रहकर एक गंभीर समस्या बन जाती है—जिसे हम ‘वंशवाद’ कहते हैं।
आजादी के इतने वर्षों बाद भी जब हम लोकतंत्र का जश्न मनाते हैं, वहीं दूसरी ओर हम उसी लोकतंत्र में उन नामों को देखते हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता पर काबिज हैं। राजनीतिक दलों से लेकर फिल्म इंडस्ट्री तक, बड़े औद्योगिक घरानों से लेकर पत्रकारिता और धार्मिक संस्थाओं तक, वंशवाद ने अपना मजबूत आधार बना लिया है। विडंबना देखिए, जनता के लिए बनी व्यवस्था में जनता का प्रतिनिधि वही बनता है जिसकी रगों में किसी पुराने नेता का खून बहता है।
समस्या की गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब वंशवाद के कारण वास्तविक योग्यता और प्रतिभा पीछे छूट जाती है। कई बार ऐसे लोग शीर्ष पदों पर पहुंच जाते हैं जो उस जिम्मेदारी के योग्य नहीं होते, केवल इसलिए कि वे ‘किसी के बेटे’ या ‘किसी की बेटी’ हैं। इस प्रवृत्ति से न केवल समाज में असमानता बढ़ती है, बल्कि उन लाखों-करोड़ों युवाओं के सपनों पर भी पानी फिर जाता है जो अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर आगे बढ़ना चाहते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि हर व्यक्ति को अपने पूर्वजों की विरासत संभालने का अधिकार है, लेकिन क्या वह अधिकार योग्यता की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही नहीं मिलना चाहिए? क्या लोकतंत्र में अवसर केवल वंश से तय होना चाहिए, न कि कर्म से?
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वंशवाद केवल लोकतंत्र का विलोम नहीं है, बल्कि यह सामाजिक गतिशीलता का शत्रु है। यह एक ऐसा अदृश्य अवरोध है, जो न केवल व्यक्ति की प्रगति को रोकता है, बल्कि पूरे समाज को एक सीमित वर्ग तक समेट देता है। यह असमानता का वह मॉडल है, जो सामाजिक न्याय की नींव को हिला देता है।
इस रोग से निपटने के लिए सबसे पहले इसकी पहचान जरूरी है। हमें यह समझना होगा कि वंशवाद का समर्थन करना दरअसल असमानता को संस्थागत बनाना है। यह लोकतंत्र में राजतंत्र की छाया को बनाए रखना है।
हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा जहां हर व्यक्ति की पहचान उसकी काबिलियत से हो, खून से नहीं।
समाधान के रूप में हमें पारदर्शी, योग्यता-आधारित चयन प्रक्रियाओं को अपनाना होगा। शिक्षा, अवसर और संसाधनों तक समान पहुंच सुनिश्चित करनी होगी। मीडिया, सामाजिक संगठन और शिक्षा संस्थानों को जागरूकता फैलानी होगी कि ‘नाम’ नहीं, ‘काम’ ही असली पहचान है।
समाज के हर वर्ग को यह समझना होगा कि वंशवाद से मिला सम्मान चकाचौंध तो देता है, लेकिन असली विकास और समानता की दिशा में यह सबसे बड़ी रुकावट है।
लेख का अंत केवल एक सवाल के साथ करना उचित होगा—
क्या आने वाली पीढ़ी भी इस "खून की विरासत" के बोझ तले दबी रहेगी, या अब समय आ गया है कि हम वंश से बाहर निकलकर योग्यता को सम्मान देना सीखें?